Sunday 17 October 2010

कल्पना

ज़िंदगी का चेहरा कैसा है?
मैने तो कभी नहीं बनाई
ना ही उसे कोई रूप या काया देनी की कोशिश की
मैने तो बस उसकी कल्पना की थी
बिना चित्रों के बिना चेहरे के
हाँ मेरी कल्पना में
बड़ी आस्था है
बड़ी खामोशी है...

गलियों और सिद्धांतों में ज़्यादा फ़र्क़ नहीं होता
हरेक गली आदमी कुच्छ खोजने के लिए बनाता है
सिद्धांत भी आदमी कुच्छ खोजने के लिए बनाता है
गली दिखती है तो, बड़ी मामूली लगती होगी
सिद्धांत बुद्धि की बात लगती है, तो असाधारण लगती होगी,
अपरोक्ष रूप से सिद्धांत भी गली के जैसा है
जो की थोड़ी अकेली होती है
क्यूँ की भीड़ में हम आवरण तो खोज लेते हैं
लेकिन खामोशी खो देते हैं
सिद्धांत खामोश होते हैं
गलियाँ मुखर
बस यही फ़र्क़ है....

जाने कितने जन्मों से
जाने कितनी गलियों में
जाने कितने सिद्धांतों में
अपनी खामोशी को
अनवरत अपलक जी रहा हूँ
फक़त अपनी कल्पना के लिए...

तूम जब भी उतरो
मेरी गलियों की सतह पर
अपनी उंगलियों से
मेरी मुंतज़ीर खामोशी को छू देना
दो आंशू बहेंगे
और मैं मुक्त हो सकूँगा
सिद्धांतों से
गलियों से

फिर तुम मुझे यक्ष बनाओ
या की ब्रह्मराक्षश
मुझे सब मंजूर है
मैं तेरा...
फक़त तेरा प्रेमी हूँ
-कल्पना

No comments: