बहुत रात और
कई दिनों की कुर्बानी के बाद
धरती से एक नन्हे से पौधे का
जन्म हुआ था,
तब मैं खुश था...
मुझे जीवन और जिस्म की सार्थकता
अपने खून से लेकर आत्मा तक
महसूस हुई थी,
तब मैं खुश था...
तब समाज नहीं था
तब नीयम नहीं थे
तब संस्कृति नहीं थी
तब प्रकृति में सुबह होती थी
तब प्रकृति में शाम होती थी
तब प्रकृति में हम घुले हुए थे,
तब मैं खुश था...
फिर मैने धरती से मीट्टी उधार माँगी
पौधे में मीट्टी डाली
उसके लिए क्यारियाँ बनाई
उसके लिए बाग के चौकीदार बनाए
सूरज के छोटे टुकड़े को
अपने आकाश में सजाया
उसके लिए मौसम बनाया
बादल से प्रार्थना किया
उसके एक-एक लम्हे को मैने
शफ़क से भी ज़्यादा सुंदर बनाया,
उसकी एक दिन की उम्र
मुझे उसकी मुस्कान और छूअन
में महसूस होती थी,
मेरी सांझ का बोझ वो मेरी गोद
में आकर गायब कर देती,
वो सिर्फ एक पौधा नहीं
मेरे जिस्म की आँखें थी
जिससे होकर मैने एक
नए आकाश को देखा था,
तब मैं खुश था...
वक़्त के साथ साथ
पौधा भी बड़ा हो रहा था
और साथ ही पूरे जगत में
एक खुश्बू सी फैल रही थी
बादल उसके साथ खेलते
आसमान गीत गाता
तारे उसके आस पास चमकते
उसकी आँखों में मेरी शाम बसती थी
उसकी साँस में मेरी साँस रहती थी
उसके खेल में मेरे जीवन का मकसद छुपा था
प्रकृति और पौधा दोनो तन्मय थे
और साथ में मैं भी,
हाँ तब मैं उसे बिटिया बुलाता था,
तब मैं खुश था...
कई दिनों की कुर्बानी के बाद
धरती से एक नन्हे से पौधे का
जन्म हुआ था,
तब मैं खुश था...
मुझे जीवन और जिस्म की सार्थकता
अपने खून से लेकर आत्मा तक
महसूस हुई थी,
तब मैं खुश था...
तब समाज नहीं था
तब नीयम नहीं थे
तब संस्कृति नहीं थी
तब प्रकृति में सुबह होती थी
तब प्रकृति में शाम होती थी
तब प्रकृति में हम घुले हुए थे,
तब मैं खुश था...
फिर मैने धरती से मीट्टी उधार माँगी
पौधे में मीट्टी डाली
उसके लिए क्यारियाँ बनाई
उसके लिए बाग के चौकीदार बनाए
सूरज के छोटे टुकड़े को
अपने आकाश में सजाया
उसके लिए मौसम बनाया
बादल से प्रार्थना किया
उसके एक-एक लम्हे को मैने
शफ़क से भी ज़्यादा सुंदर बनाया,
उसकी एक दिन की उम्र
मुझे उसकी मुस्कान और छूअन
में महसूस होती थी,
मेरी सांझ का बोझ वो मेरी गोद
में आकर गायब कर देती,
वो सिर्फ एक पौधा नहीं
मेरे जिस्म की आँखें थी
जिससे होकर मैने एक
नए आकाश को देखा था,
तब मैं खुश था...
वक़्त के साथ साथ
पौधा भी बड़ा हो रहा था
और साथ ही पूरे जगत में
एक खुश्बू सी फैल रही थी
बादल उसके साथ खेलते
आसमान गीत गाता
तारे उसके आस पास चमकते
उसकी आँखों में मेरी शाम बसती थी
उसकी साँस में मेरी साँस रहती थी
उसके खेल में मेरे जीवन का मकसद छुपा था
प्रकृति और पौधा दोनो तन्मय थे
और साथ में मैं भी,
हाँ तब मैं उसे बिटिया बुलाता था,
तब मैं खुश था...
फिर एक दिन
समाज नाम का मौसम आया
उसके साथ साथ नियम के कीड़े आए
जो प्रकृति के जिस्म को काट पीट कर
उसपे संस्कृति की लेप चढ़ाना चाहते थे
एक दिन वो सब मेरे भी घर के सामने थे
वो मेरी बिटिया को ले जाना चाहते थे
मेरी अम्मी मेरे अब्बा
सब की आँखों में आँसू थे
लेकिन सब लोग यही कहते रहे की
जा बेटी जा तू कल्याणी है
अब तू दूसरे घर का कल्याण कर
लेकिन मुझे कुछ नहीं पता
जिसमें मैने अपना
वक़्त, साँस और ख्वाब लगाए हैं
आज उसे तुम लोग ऐसे कैसे काट कर ले जाओगे?
मेरी नसों को ऐसे कैसे काट दोगे?
हो सके तो तुम मेरा आकाश ले लो
हो सके तो मेरा चाँद ले लो
हो सके तो मेरी आँखें ले लो
लेकिन मेरी आँखों की रोशिनी
मेरी बिटिया को रहने दो
मैं उसी की ही आँखों से साँस लेता हूँ
उसी की हलचल से
मेरे बाग में गुल खिलते हैं
उसी की मुस्कान से सुबह होती है
मैं उसे खुद से अलग कैसे होने दूँ?
लेकिन वो नहीं माने
मेरी रूह को जला कर
उसके सात फेरे दिलाये
छह फेरो तक मैं ज़िंदा था
सातवें में मेरी साँस निकल गयी
और लोग मेरी बिटिया को
मुझसे छीन के ले गये
और मेरी रूह को
मेरे सामने जला गये,
अब मुझे नहीं पता मैं कौन हूँ?
बस एक सवाल मैं समय की सभ्यता से
पूछना चाहता हूँ
क्या मैं खुश हूँ?
समाज नाम का मौसम आया
उसके साथ साथ नियम के कीड़े आए
जो प्रकृति के जिस्म को काट पीट कर
उसपे संस्कृति की लेप चढ़ाना चाहते थे
एक दिन वो सब मेरे भी घर के सामने थे
वो मेरी बिटिया को ले जाना चाहते थे
मेरी अम्मी मेरे अब्बा
सब की आँखों में आँसू थे
लेकिन सब लोग यही कहते रहे की
जा बेटी जा तू कल्याणी है
अब तू दूसरे घर का कल्याण कर
लेकिन मुझे कुछ नहीं पता
जिसमें मैने अपना
वक़्त, साँस और ख्वाब लगाए हैं
आज उसे तुम लोग ऐसे कैसे काट कर ले जाओगे?
मेरी नसों को ऐसे कैसे काट दोगे?
हो सके तो तुम मेरा आकाश ले लो
हो सके तो मेरा चाँद ले लो
हो सके तो मेरी आँखें ले लो
लेकिन मेरी आँखों की रोशिनी
मेरी बिटिया को रहने दो
मैं उसी की ही आँखों से साँस लेता हूँ
उसी की हलचल से
मेरे बाग में गुल खिलते हैं
उसी की मुस्कान से सुबह होती है
मैं उसे खुद से अलग कैसे होने दूँ?
लेकिन वो नहीं माने
मेरी रूह को जला कर
उसके सात फेरे दिलाये
छह फेरो तक मैं ज़िंदा था
सातवें में मेरी साँस निकल गयी
और लोग मेरी बिटिया को
मुझसे छीन के ले गये
और मेरी रूह को
मेरे सामने जला गये,
अब मुझे नहीं पता मैं कौन हूँ?
बस एक सवाल मैं समय की सभ्यता से
पूछना चाहता हूँ
क्या मैं खुश हूँ?
1 comment:
mere liye kitne dheron arth rakhtee hai ye rachana main kah nahee sakta
aur mere jaise kitne dheron hain dhartee par tum bhee gin nahee paogee nishal
an ginat logon ke liye likhne par bahut bahut badhayee
Anil masoomshayer
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