Friday 21 November 2008

Kuchh Nanhe khayal

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pahle aayina mujhe
thodi mehnat kar ke
chasma laga kar
batti jala kar
pahchan leta tha ki
ye wahi hai
jo mere jism ko
aahista aahista chhoota tha
to meri sanso mein
sihran hoti thi

aaj iske rang ko kya hua
ek alag chehra lekar
hawa mein udta rahta hai


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mujhe bhi kayi log
bartan mein pani daal kar
khush hote hain
ki ek chand mere bhi pass hai

lekin jara chhat pe jaake
upper to dekho
meri shakshiyat pe raat zinda hai

vriksh ho ya bonsai, 
vat-vriksh to phir vat-vriksh hai
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आज थोड़े खोए हुए कदमों से
हल्की धूप से होकर
गुजर रहा था
एक अकेली सी सड़क के किनारे
एक छोटा सा पेड़ था
दिखने में बूढ़ा सा था
लगता था उसने तन्हाई
में एक अरसा जिया है
मैने सोचा की उसे क्यूँ देखना
तभी मेरी नज़र की सीध में
धरती पे पड़े हुए
कुछ लाल लाल से बीज आए
जो शायद उसी पेड़ के
फल से गिरे होंगे
एकदम मोतियों के जैसे 
चमकते हुए प्यारे प्यारे बीज.

आज शाम को घर
आया तो दीवारें पूछती है
मेरे लिए क्या लाए हो,
अपनी छोटी सी मुट्ठी में
रस्ते पे चुने हुए
बीजों को उनकी गोदी में डाल दिया

आज भी वो दीवारें
मुझसे रिश्ता बनाए हुए हैं
कहते हैं उन मोतियों
से एक मजनू की खुसबू आती है

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मेरे सुने घर में
बिना बोलने वाली 
एक कुर्सी बड़े आराम से बैठी रहती है
उसने भी इस घर की दीवारों
के साथ सादिया बिताई है
शायद दीवार और वो कुर्सी
मिल कर 
कभी तन्हाई कभी अश्क़ बाँटते हैं

आज अचानक से मन हुआ
उस कुर्सी को छूने का
मैं पास गया
और आहिस्ता आहिस्ता 
खुद को उसकी बाहों में छोड़ दिया

और पता नहीं कैसे
मैने ये महसूस किया की
उसपे मैं बैठ नहीं रहा
उसमें मैं खुद को समा रहा हूँ

चीज़... नहीं वो चीज़ नहीं है, ok रिश्ता...
रिश्ता जितना पुराना हो
उतनी ज़्यादा समझ होती है
उस कुर्सी के एक एक अंग
से मुझे अपनापन महसूस होता है
उसका रूप, आकार, every dimension
जैसे सिर्फ़ मेरे जिस्म के लिए बनाई गयी हो

आज अरसे बाद
जब उस कुर्सी पे बैठा
तो वो कुर्सी नहीं
माँ की गोद के जैसी लगी

रिश्ता जितना पुराना हो
उतनी ज़्यादा समझ होती है

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आज दिन के वक़्त
टूटी फूटी पगडंदियों से
गुजर रहा था की
एक और आश्चर्य देखा
मैने एक प्यारे से प्राणी को देखा
गौर से देखने पर
मेरे बचपन की 
स्मृति से झड़कर
एक चेहरा सामने आया
.... 
यही तो वो... है
जिसे मैं अपने
छोटे छोटे हाथों से
रंग लगाया करता था
मोहल्ले का एक भी
जीव मेरे रंग से
अछूता नहीं था
.... 
अरे ये तो वही है
ये तो बकरी है
कितनी प्यारी है ये
OMG :o

उसकी निर्मम आँखें
ममत्व से भरी थी
और उसका शरीर
कपास के फूल से बना था
मैं उसे काफ़ी देर तक
अपनी आँखों से पीता रहा
--- 
कैसे कुछ लोग इस
प्यार जीव को काट देते हैं
फिर खा भी लेते हैं
I can't understand this insanity

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वक़्त जब एक बार
मेरे आसमान पे
हवाओं को फूँक रहा था
मेरी आँखों से
उतर कर
एक छोटा सा अरमान की
मैं भी क्षितिज को हिलाऊँगा
उसके वक्ष से जा लगा था
आज उन्ही अरमानो की मिट्टी 
को सुंदर से चाक पे
घुमा घुमा कर
एक प्यारी सी मूरत बनाई
और अब वक़्त आ गया है
की
जब क्षितिज गिराए जाएँगे
और सूरज डूबाए जाएँगे

मैं तेरे पाँव के नीचे
क्षितिज लगाना चाहता हूँ
तू एक कदम बढ़ाएगी
और सूरज डूब जाएगा
तू दूजा कदम बढ़ाएगी
और शाम हुआ करेगी

कैसे बताऊं?

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जाना मुझे ये बात बता दे

कल तक जो चाँद
मेरी आँखों से लेकर
मेरी रूह तक
एक ठंडी रोशिनी सी
फैल जाती थी
आज वो क्यूँ
मेरी आँखों में
एक दर्द का समंदर
बन मेरे रूह से
टपक रही है

जाना मुझे ये बात बता दे

क्यूँ मेरी साँसे
जो ज़िंदगी
और चेतना का
सुबह पढ़ाती थी
आज वो क्यूँ
मुझे आग से 
भी ज़्यादा
हल्के हल्के जला रही है

जाना मुझे ये बात बता दे

क्यूँ तेरी ही बताओं
से मैं साँस लेता हूँ
क्यूँ तेरी ही आवाज़ से
मैं ज़िंदगी पीता हूँ
क्यूँ तेरी ही यादों से
मैं भविष्य बनाता हूँ
क्यूँ तेरी ही खुशियाँ
मैं अपने समय से बुनता हूँ
क्यूँ तेरे ही आकाश को
मैं कायनात से चुनता हूँ

क्यूँ फिर ये पल
तू मेरे सिने में
रख कर 
मुझे दूर करती है
और अपने मोटे मोटे
आँसू बहा कर
मुझे सुबह तक जलाती है

जाना मुझे ये बात बता दे...

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